कल के आलेख में मैने स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि ज्योतिष में सर्पधर तारामंडल को तेरहवीं राशि मानने का कोई औचित्य नहीं है। डॉ अरविंद मिश्रा जी समेत कुछ पाठकों को बात पूरी तरह समझ में नहीं आयी , इसलिए इस विषय पर विस्तार से एक लेख लिखने की आवश्यकता आ गयी है। हमारे ऋषि महषिर्यों की दृष्टि पूरे ब्रह्मांड पर थी , जिसके कारण हमारे लिए जो पृथ्वी इतनी विशाल है , उनके लिए एक विंदू मात्र थी। पृथ्वी को एक विंदू मानते हुए उन्होने उसके चारों ओर के आसमान के पूरब से पश्चिम की ओर जाते प्रतीत होते वृत्ताकर पथ के 360 डिग्री को , जिससे सूर्य और अन्य सभी ग्रह गुजरते प्रतीत होते हैं , को 12 भागों में बांटा। 0 से 30 डिग्री तक मेष , उसके बाद के 30 डिग्री तक वृष , उसके बाद के 30 डिग्री तक मिथुन .. इस क्रम में 12 राशियों की उत्पत्ति हुई। सूर्य 14 अप्रैल को जिस विंदू पर होता है , वहां से मेष राशि की शुरूआत होती है, एक एक महीने बाद दूसरी तीसरी राशियां आती हैं तथा वर्षभर बाद पहले विंदू पर मीन राशि का अंत हो जाता है। 30 - 30 डिग्री पर आनेवाले सारे विंदू ही सूर्य सिद्धांत के संपात विंदू हैं। राशियों का यह वर्गीकरण बिल्कुल स्थायी है और इसमें फेरबदल की कोई आवश्यकता नहीं।
एक वृत्ताकार पथ में किसी भी विंदू को शुरूआत और अंत कह पाना मुश्किल है और हमारे ज्योतिषीय ग्रंथों में इस बात की कोई चर्चा नहीं है कि मेष राशि का शुरूआती विंदू यानि वृत्ताकार पथ में 0 डिग्री किस आधार पर माना गया है , इसलिए आधुनिक विद्वानों ने इस आधार को लेकर अपने अपने तर्क गढने शुरू कर दिए। हमने भूगोल में पढा है कि 21 मार्च को सारे संसार में दिन रात बराबर होते हैं , क्यूंकि उस दिन सूर्य भूमध्य रेखा के सीध में होता है। पाश्चात्य ज्योतिषियों की कल्पना है कि जिस समय ज्योतिष की शुरूआत हो रही होगी , उस समय 14 अप्रैल को सूर्य भूमध्य रेखा के सीध में रहा होगा , इसी कारण हमारे ऋषियों ने इसे मेष राशि का प्रथम विंदू माना होगा। पृथ्वी के अपने अक्ष पर क्रमश: झुकाव बढने के कारण यह तिथि पीछे होती जा रही है , इसलिए मेष राशि का शुरूआती विंदू भी पीछे की तिथि में माना जाना चाहिए। इसलिए वे हमारे ग्रंथों में उल्लिखित तिथि से 23 डिग्री आगे को ही मेष राशि का आरंभ मानते हैं।
राशियों को लेकर ज्योतिषियों में शंका की शुरूआत इनमें स्थित तारामंडल को लेकर भी हुई , जिसके आधार पर राशियों का नामकरण किया गया था। हमारे ग्रंथों में राशियों के 30-30 डिग्री का बंटवारा स्पष्ट है , पर इन राशियों को पहचानने के लिए हमारे ज्योतिषियों ने उसमें स्थित तारामंडल का सहारा लिया था। लेकिन पाश्चात्य ज्योतिषी तारामंडल यानि तारों के समूह को ही राशि मानते हैं , उनका मानना है कि जिस तारे के समूह में बच्चे के जन्म के समय सूर्य होता है , वही बच्चे के चरित्र और व्यक्तित्व निर्माण में महत्व रखता है , क्यूंकि प्रत्येक तारामंडल की अलग अलग विशेषताएं होती हैं। पर भारतीय ज्योतिष में किसी खास तारे या तारामंडल के ज्योतिषीय प्रभाव की कहीं चर्चा नहीं है। इसमें ग्रह स्वामित्व के आधार पर राशि के स्वभाव और उसमें स्थित सौरमंडल के गह्रों और पृथ्वी के अपने उपग्रह चंद्रमा के प्रभाव की चर्चा की गयी है।
'गत्यात्मक ज्योतिष' ने ज्योतिष की पुस्तकों के सभी नियमों की गहराई से छानबीन की है और जिस नियम से भविष्यवाणी में अधिक सफलता मिली है , उसे स्वीकार किया है। वैज्ञानिक आज जिस वॉबलिंग की चर्चा कर रहे हैं , उसको ध्यान में रखते हुए ज्योतिषीय पंचांगों में सभी ग्रहों की स्थिति सायन अंश में दी होती है। उसमें वर्ष के अनुसार अयण डिग्री घटाकर निरयण डिग्री निकाला जाता है। अपने रिसर्च के आरंभिक दौर में ही 'गत्यात्मक ज्योतिष' ने दोनो प्रकार की कुंडलियां बनाकर फलादेश करना आरंभ किया था। सायन् के हिसाब से जो जन्मकुंडली बनी , उसके द्वारा कहे गए फलित की सटीकता में संदेह बना रहा , जबकि निरयण से फलादेश काफी सटीक होता रहा। इसलिए 'गत्यात्मक ज्योतिष' मानता आ रहा है कि हमारे ऋषि महर्षियों के द्वारा मेष राशि का शुरूआती विंदू बहुत ही सटीक है। वैसे भी सभी राशियों का विस्तार 30-30 डिग्री का है , जबकि सभी तारामंडल का विस्तार एक समान नहीं होता , तारामंडल तो मात्र राशियों को पहचानने के लिए प्रयोग किया गया था। इसलिए तारामंडल को राशि माना जाना उचित नहीं।
'भारतीय ज्योतिष' भविष्यवाणी करने की एक वैज्ञानिक विधा है , इसके विकास के लिए प्रयास अवश्य किए जा सकते हैं , कुछ नियमो में फेरबदल की जा सकती है। पर राशि का बंटवारा और ग्रह आधिपत्य तो इसका मूल आधार है , इसलिए किसी भी स्थिति में इसके आधार को चुनौती नहीं दी जा सकती , इसपर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता। चूंकि भारतीय ज्योतिषी तारामंडल को राशि नहीं मानते हैं , इसलिए सर्पधर तारामंडल को भी राशि मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता। पाश्चात्य ज्योतिषी तारामंडल को ही राशि मानते आए हैं , इसलिए सर्पधर तारामंडल को तेरहवीं राशि मान लेना उनकी इच्छा पर निर्भर करता है। पर इसे तेरहवीं राशि मानते हुए फलित ज्योतिष के विकास में बहुत सारी बाधाएं आएंगी , जिससे निबटना उनके लिए आसान नहीं होगा।